भाषा में कहना निरर्थक लगता है,हालाँकि भाषा समाज है .और समाज से समाज को समझ आनेवाले ढंग में न कहें तो कैसे ...?सच तो है कि हमारे वक्त में सबसे ज्यादा यही ढूंढना है कि कैसे कहें ...कि गांधीजी की लाइन में व्यापारी बोले तो हम मतलब निकाल सकें ,कि अमिताभ बच्हन की ज़बान में हरिवंश राय के लफ्ज़ फूटें तो भी जान सकें कि किसने किससे क्या कहा ,कि नामवर सिंह की ज़बान जहाँ ताक़त से लबरेज़ चाहे जितने दिव्य दैन्य से हुक्म फरमाए उसका मतलब ज़ाहिर होने में देर न हो ...लेकिन सब उलझता चला जा रहा है किसी नूडल्स के कटोरे में (कभी ख़ुद में कभी सबमे )......
लफ़्ज़ों के मानी बेतरह उकताए से एक दूसरे का साथ छोड़ते चले जा रहे हैं ...तो समझ नही आता कि कहनेवाले से शिकायत करें या सुननेवालों को लानत भेजें ...दरअसल इस वक्त मुझे कुछ समझ नही आता ....आपको आ रहा है ...?क्या आपको भी कुछ कहना है ....???
Tuesday, November 17, 2009
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