Tuesday, April 7, 2009

कब से गिरने गिरने को एक चट्टान है

विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा है कि कब से गिरने गिरने को एक चट्टान है उस कब से गिरने गिरने को जो चट्टान है उसके नीचे से एक रास्ता है ...
उम्मीद की वकालत करने वाले ऐसे कवि कम ही हैं ...क्या करें मर्सिया का अंदरूनी स्वर हमारी कविताओं का स्थायी भाव बन गया है ...
लेकिन और भी तो बहुत कुछ है ..और भी तो रस्ते किसी न किसी और निकल्त्यें ही हैं उन्हें भी तो सामने लायें
"क्या इतना निराश हुआ जाए ?"

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